સંગ્રહ

फिर एक बार…

‘રાષ્ટ્રદર્પણ’ ઑગષ્ટ ૨૦૨૦માં પ્રકાશિત..

 

फिर एक बार

मेरे वतनके लोगकी आवाज़ ऊठी, फिर एक बार,
कुरबानी ऑर शहीदीकी सरगम गूंजी, फिर एक बार

सिंदूर मिटाते हाथ और टूटे हुए कंगनके साथ,
रुधिरसे लथपथ हुई, लाशें चीखी, फिर एक बार

अपनोंसे  खाई  गोली लेकर, सो गये वो  वीरकी
तस्वीरकी
बारात दिलमें  जाग ऊठी  फिर एक बार

बरसों बीती  वह वीरतासे, पूछ हा रंगीन तिरंगा,
कहां, कौन है आज़ाद?’ सवालात हुई, फिर एक बार

 ये देशकी सरहद पे देखो, जाने क्यूं धूंआँ ऊठा,
आओ सभी, मिलकर अभी, मनमें कहे फिर एक बार..

झंडा ऊँचा रहे हमारा, ” संदेश लेकर शानसे,
प्यारे वतनके हमसफर, आगे बढें, फिर एक बार

                            

 

होलीका संवाद-गीतः

होलीका संवाद-गीत

           

   હિન્દી

सोलाह साल की सांवरी छोरी, मासूम और थी भोली।

गांव की सूरत, नटखट मूरत, उठ सवेरे बोली ।

    “ आई होली रंगो भर कर, देखो सूरज की किरणें,
          सोने जैसी हवा में हलचल, आओ खेले होली”।

     एक बांका छोरा बोला, करके आंख मिचोली।
                “ हाँ निकला इन्द्रधनुष अंबर पे, चलो खेलें होली”।

    “ अरे जा-जा, पहले बता तू रंग पवन का 
          फिर बता रंग खुशबू का, तब खेलेंगे होली”।

गहरी सोच में पड गया छोरा, ये उल्झन कहां से मोल ली?
खुशबू और पवन का रंग,  ये तो मुश्किल हो गई पहेली।
सोच सोचकर पाया आखिर, कहाँ है ऐसा रंग कहीं भी,
बिजली-सा कुछ चमक उठा, गया गुलाली आंखे खोली|

      बोला,”एक मैं जानू गहरा रंग जो जग में सबसे ऊंचा।
                 अगर मिला दे रंग जो तेरा, तो प्रेम से खेलें होली।
                 पवन तो क्या, खुशबू तो क्या, लिख दूं पानी पर भी नाम,
                 बस, सच्चा रंग तू ले के आना, खेलेंगे हम होली…”

सोलाह सालकी सांवरी छोरी, जरा शरमा के दौडी।
नजर चुराके, नैन झुका के, कुछ – कुछ ऐसा बोली,

“ये कौन सा रंग भर आया, मेरा अंग अंग रंग होली”।
            सोलहा सालकी सांवरी छोरी, मस्ती से खेली होली।
            तन-मन-धन रंग खेली, झूम के खेली होली।       

पच्चीस साल पुरानी गलीमें…

पच्चीस साल पुरानी गलीमें,
फिर एक बार गुझर रही थी
मनकी गुफामें जैसे एक बारात;
यादोंकी बारात जा रही थी।
वो ही चौराहें,वो ही राहें, वो ही हवायें,
पच्चीस साल पुरानी गलीमें…..
कुछ नहीं बदला था वही;
हां, सिर्फ मैं नहीं थी कहीं !
फिर भी न जाने क्यूं,
लग रहा था ऐसे,
जैसे,
कल शाम ही तो
मैं यहीं थी!!!!!
पच्चीस साल पुरानी गलीमें…..
हमेशा मैं वहीं थी..फिर भी नहीं थी,
क्यूं की मैं कहीं ऑर थी..
पच्चीस साल पुरानी गलीमें,
फिर एक बार गुझर रही थी

मनकी गुफामें जैसे एक बारात;
यादोंकी बारात जा रही थी।

पहेली बार

कविताकी ये शाममें सुनहरी एक बात लाई हूं;
सितारोंसे सजी रातका आस्मान लाई हूं.

न सूर है, न साज है, और सरगम भी नही है;
पर झूम उठे हवायें ऐसी तान लाई हूं.

देखुं कहीं पतझड यहीं, ओर है झिलमील कहीं;
पर दिलके आंगनमें खीला एक हराभरा पान लाई हूं.

पुष्प है दो लब्झके ओर पंख है कुछ प्यारकी,
साथमें स्नेहसे रचा सच्चा सच्चा हार लाई हूं.

न सोचना ये पलकोंसे अश्क बह गये,
आपकी तारीफमें भीगी भीगी-सी आंख लाई हूं.

मनसे नमन है,होठ है खामोश बस..
पर गान मखमली यहां पहेली बार लाई हूं.

पहेली बार लाई हूं….

स्वातंत्र्य दिन…

आजाद दिन

“मेरे वतनके लोग”की आवाज़ ऊठी, फिर एक बार,
कुर्बानी ऑर शहीदीकी सरगम गूंजी, फिर एक बार ।

सिंदूर मिटाते हाथ और तूटे हुए कंगनके साथ,
रुधिरसे लथपथ हुई, लाशें चीखी, फिर एक बार ।

अपनोंसे झेली गोलीयाँ, सोये हुए थे गांधीकी,
तस्वीरकी बारात आज, दिलमें जगी, फिर एक बार ।

सडसठ बरसकी वीरताको पूछ रही रंगीन धजा,
‘कहां, कौन है आज़ाद?’ सो सवाल उठे, फिर एक बार ।

देशकी सरहद पे देखो, न जाने क्यूं धूंआँ ऊठा,
आओ सभी, मिलकर यहाँ, मनमें कहे फिर एक बार..

“झंडा ऊँचा रहे हमारा, ”संदेश लेकर शानसे,
प्यारे वतनके हमसफर, आगे बढें, फिर एक बार ॥